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उत्तर दोगे? / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
*
नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं!
सहज रूप से प्यार करती हूँ तुम्हें!
आदर भी तुम्हारी क्षमताओं का, सामर्थ्य का!
आकाश जैसे छाये कई रूप-
पिता, भाई, पति, पुत्र, मित्र,
अभिभूत करते हैं.
जीवन के हिस्सेदार सब,
स्वीकार करती हूँ .
*
पर पुरुष मात्र होते हो-
जब इनमें से कुछ नहीं
व्यक्ति मात्र, संबंधहीन,
तुम्हारी कौतुक भरी तकन
नापती-तोलती, असहज करती नारी-तन .
नर का चोला खिसका
झाँकने लगता पशु,
क्या पता कब हो जाओ
भूखे, आतुर, दुर्दांन्त,
रौंदने को तत्पर!
विश्वास नहीं करती,
मैं घृणा करती हूँ तुमसे!
*
एक बात और-
अपना कह, सब कुछ अर्पण कर
धन्यता मानी थी! .
पर क्या ठिकाना तुम्हारा,
घबरा कर, ऊब कर,
आत्म-कल्याण-हित,
परमार्थ खोजने चल दो,
कीचड़ में छोड़,
भुगतने को अकेली.
खुद का किया धरा मुझ पर लाद
कायर असमर्थ, दुर्बल तुम!
*
क्यों, कल्याण के मार्ग
मेरे लिये रुद्ध हैं?
अगर हैं,
तो तुमने रूँधे हैं,
कि संसार
अबाध चलता रहे!
*
क्या कभी तुम्हें
बीच मँझधार छोड़,
अपने लिये भागी मैं ?
उत्तर दोगे ?

*
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