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जैसे तुम / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
*
चाहती हूँ स्वीकृति-
कि मैं हूँ एक व्यक्ति
अभिव्यक्ति सहित .
उन्हीं क्षमताओं दुर्बलताओं सँग आई हूँ,
बुद्धि-संवेगों की वही भेंट पाई हूँ,
जैसे तुम!
*
कितनी मुश्किलें,
पर फिर भी यहीं खड़ी हूँ .
जीवन की डोर थाम,
आर-पार लगातार गिरी और चढ़ी हूँ .
एक दीर्घ स्वर और धार कर आई
वही गाँठ बाँध धारे हूँ!
हल्की हूँ तन से
मन से बहुत भारी हूँ .
नारी हूँ!
*
कभी भुक्ति, कभी मुक्ति,
शांति-भ्रांति या कि अहं,
भागते हो घबरा कर
अपने लिये तुम.
अपने नहीं,
अपनों के लिये हारी हूँ.
नारी हूँ!
*
थोड़ा- सा अधिक और-
कुंठित मत होना!
ममता के सूत कात घनताएँ वहने को,
सृजन की उठा-पटक,
दारुण-पल सहने को,
सहज नहीं मरती,
कठोर जान लाई हूँ!
व्यक्ति-अभिव्यक्ति सभी,
नहीं परछाईँ हूँ!
जैसे तुम!
*
</poem>