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09:21, 5 अप्रैल 2015 {{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
घास फूस का ढेर पड़ा था,
उस पर गिरी एक चिनगारी।
धुआँ हुआ फिर हुआ उजाला,
चमक उठीं फिर गलियाँ सारी।
आग लगी है, आग लगी है,
शोर किया लड़कों ने भारी।
मेला सा लग गया वहाँ पर,
जमा हुये इतने नर नारी।
हँस कर बोली वह चिनगारी,
ओहो ! मैं हूँ कितनी न्यारी।
पहले कौन समझ सकता था,
मुझमें है यह ताकत भारी।
घास फूस सी है यह दुनिया,
नर की इक्छा है चिनगारी।
चाहे तो चमका सकता है,
उसके बल पर वसुधा सारी।
</poem>