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09:36, 5 अप्रैल 2015 {{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
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|संग्रह=
}}
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<poem>
दादा ने है बन्दर पाला,|
है वह बन्दर बड़ा निराला।|
दरवाजे पर बैठा रहता,
कुछ भी नहीं किसी से कहता।
शायद सोचा करता मन में-
पड़ा हुआ हूँ मैं बंधन में।
इससे भूल गया सब छल बल,
खा लेता जीने को केवल।
मैं उस राह सदा जाता हूँ,
नित चुमकार उसे आता हूँ।
जिससे वह खुश हो सोचे रे,
अब भी एक मित्र है मेरे।
</poem>