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बाल विनय 2 / श्रीनाथ सिंह
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09:47, 5 अप्रैल 2015
इसके नदी पहाड़ वनों पर पक्षी सा मंडराऊं मैं।
इसका नाम न जाये चाहे अपना शीश कटाऊँ मैं,
भूल तुम्हे भी हे परमेश्वर
!
इसका ही कहलाऊँ मैं।
</poem>
Dhirendra Asthana
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