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क्लर्क रौ गीत / मोहन आलोक

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घर सूं दफ्तर
अर
दफ्तर सूं घर, जिया
म्हे जिया तौ
फकत औ सफर जिया।
अेक भूख चक्र-सी जीयी
तिरस पीई
इयां ईं भूण ज्यूं
घरां सूं नीसर्या सदा, कसूण
बड्या जणा रैया कसूण, ब्यूं।

जीवणै रा ज्यूं जतन कर्या
बियूं ईं
बार-बार मर’र, जियां

झिड़कियां री खिड़कियां खुली
कालजै लकीर खींचगी
पेट में पगां री बेबसी
आतमा री आंख मीचगी

जीवणै धरू गुलाब नै
अफसरां री
कर निजर, जिया।
ऊगती अकल री ऊंदरां
ऊपरां सूं टूंक बाढली
दीठ रै धड़ां सियाळियां
जीवतां री आंख काढ ली

खोड़ खोखरी लियां
कियां-ईं
भूख रै पगां पसर
जिया।

म्हे जिया
तौ औ सफर जिया।
</poem>
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