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स्तुति-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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{{KKRachna
|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
|अनुवादक=|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी}} <poem>सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥
सुमिरौं आदि निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक करतारू जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥<br>कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥<br>कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥<br>कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥<br>कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥<br>कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ <br>कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥<br><br>गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना <br>कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥पहिलै ताकर नावँ कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥कीन्हेसि मधु लावै लै कथा करौं औगाहि ॥1॥<br><br>माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥<br>कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥<br>कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥<br>कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥<br>कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥<br>कीन्हेसि सहस अठारह बरन सेत ओ स्यामा बरन उपराजि कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥<br>कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥<br><br>भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
निमिख कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ लाग करत ओहिकोई ॥कीन्हेसि जियन ,सबै कीन्ह पल एक सदा सब चाहा <br>कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥<br><br>कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥<br>कीन्हेसि नागकोई निभरोसी, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥<br>कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए कोइ बरियार कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥<br>छारहिं तें सब कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥<br>कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥<br>कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥<br>कीन्हेसि राकस भूत परेता । पुनि कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥<br><br>सब छार ॥4॥
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि धनपति उहै जेहिक संसारू <br>सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति दुहेसि पुनि सबन राति दिन बाँटा ॥ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ सकल साजना साजि ॥3॥<br><br>देइ भुगुति ओ जियना ॥सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
कीन्हेसि मानुषजुग जुग देत घटा नहिं, दिहेसि बडाई उभै हाथ अस कीन्ह कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥<br>कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥<br>कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥<br>कीन्हेसि जियन , सदा और जो दीन्ह जगत महँ सो सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥<br>कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥<br>कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥<br><br>ताकर दीन्ह ॥5॥
कीन्हेसि कोई निभरोसीआदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥छत्रहिं अछत, कीन्हेसि कोइ बरियार निछत्रहिं छावा <br>दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥छारहिं तें परबत ढाह देख सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥<br><br>लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ नितिनास्ति वह अहथिर, घट न भँडारू ॥<br>ऐस साज जेहि केर ।जावत जगत हस्ति एक साजे चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥<br>ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥<br>पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥<br>भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाईभाँजै , आप नहिं खाई ॥<br>ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥<br>सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥<br><br>चहै सँवारै फेर ॥6॥
जुग जुग देत घटा नहिंअलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, उभै हाथ अस सब ओहि सों बर्ता ॥परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई <br>वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥और जो दीन्ह जगत महँ होइ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥<br><br>बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥<br>सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥<br>छत्रहिं अछतजो चाहा सो कीन्हेसि, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं करै जो सरवरि पावा ॥<br>परबत ढाह देख सब लोगू चाहै कीन्ह चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥<br>बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥<br>ताकर कीन्ह बरजनहार जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥<br>काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥<br><br>, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
सबै नास्ति वह अहथिरएहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥जीउ नाहिं, ऐस साज जेहि केर पै जियै गुसाईं <br>कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥एक साजे औ भाँजै जीभ नाहिं, चहै सँवारै फेर ॥6॥<br><br>पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । ना वह सब सोंमिला न बेहरा, सब ओहि सों बर्ता ॥<br>परगट गुपुत सो सरबबिआपी ऐस रहा भरिपूरि धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥<br>ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥<br>जना न काहुदीठिवंत कहँ नीयरे, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥<br>वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥<br>हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥<br>और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥<br><br>अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
और जो चाहा सो कीन्हेसि, करै दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो चाहै कीन्ह बिहँसै जोगू ॥दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना <br>दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥बरजनहार न कोईदीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥<br><br>बर बाहाँ ॥दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥<br>जीउ नाहिं, काया-मरम जान पै जियै गुसाईं । कर नाहींरोगी, पै करै सबाईं ॥<br>जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला भोगी रहै निचिंत तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥<br>स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥<br>नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥<br>है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥<br>ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥<br><br>कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
ना वह मिला अति अपार करता कर करना । बरनि बेहरा, कोई पावै बरना ॥सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥ऐस रहा भरिपूरि कीन्ह सब गुन परगटा <br>अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥<br><br>ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥
और जो दीन्हेसि रतन अमोला बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ताकर मरम न जानै भोला ॥<br>दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन औ अस गुनी सँवारे, जो बिहँसै जोगू ॥<br>दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥<br>दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥<br>दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥<br>जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥<br>दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥<br><br>गुन करै अनेग ॥10॥
कायाकीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-मरम जान पै रोगीकरा ॥प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, भोगी रहै निचिंत मारग चीन्हा ॥जौ न होत अस पुरुष उजारा <br>सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥<br><br>दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥
अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥<br>सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥<br>जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥<br>जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख गगन तराई ॥<br>सब लिखनी कै लिखु संसारा जोख लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥<br>ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥<br>ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥<br><br>वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥
बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ <br>जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥औ अस अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥पुनि उसमान पंडित बड गुनी सँवारे। लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥बचन एक जो गुन करै अनेग ॥10॥<br><br>सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥<br>प्रथम जोति जो पुरान बिधि ताकर साजी पठवा सोई पढत गरंथ औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥<br>दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥<br>जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ अँधियारा ॥<br>दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥<br>जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥<br>जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥<br><br>॥12॥
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥ओही छाज छात जोख पाटा <br>सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥<br><br>जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥<br>अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥<br>पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥<br>पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥<br>चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥<br>चारिउ एक मतैअसीस मुहम्मद, एक बाना करहु जुगहि जुग राज एक पंथ औ एक सँधाना ॥<br>बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ बादसाह तुम जगत के जग बाँचा ॥<br><br>तुम्हार मुहताज ॥13॥
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ बरनौं सूर भूमिपति राजा <br>भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥<br><br>हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥ मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥<br>ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥<br>जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥<br>सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥<br>तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥<br>हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥<br>औ अति गरू जब वह चढै भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥<br><br>सेर साहि जग सूर ॥14॥
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज अदल कहौं पुहुमी जस होई <br>चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥<br><br>नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥
बरनौं सूर भूमिपति राजा सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥<br>हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥<br>रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥<br>भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥<br>डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥ <br>मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥<br>अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥<br><br>गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥ससि चौदसि जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर दई सँवारा <br>ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥जब वह चढै भूमिपति सेर साहि पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥अस भा सूर ॥14॥<br><br>पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥
अदल कहौं पुहुमी जस होई रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥<br>नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥<br>अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥<br>परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥<br>गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥<br>नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥<br>धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥<br><br>मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ पुनि दातार दई जग कीन्हा <br>अस जग दान न काहू दीन्हा ॥गंगबलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥<br><br>सरि सौंह न दीन्हा ॥
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥<br>ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥<br>पाप जाइ जो दरसन दीसा । ऐस दानि जग जुहार कै देत असीसा ॥<br>जैस भानु जग ऊपर तपा उपजा सेरसाहि सुलतान सबै रूप ओहि आगे छपा ॥<br>ना अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥<br>सौंह दीठि कै हेरि भयउ जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥<br>रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥<br><br>होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
रूपवंत मनि माथेसैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, चंद्र घाटि वह बाढि सब जाना बूझा ॥खार समुद्र पाप मोर मेला <br>बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥<br><br>उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥ दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥
पुनि दातार दई जग कीन्हा जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद अस जग दान न काहू दीन्हा ॥<br>बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥<br>सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥<br>दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥<br>कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥<br>जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥<br>दस असमेध वै मखदूम जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥<br><br>के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
ऐस दानि ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग उपजा सेरसाहि सुलतान के ताईं ॥दुहुँ खंभ टेके सब महीं <br>दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥ना अस भयउ न होइहिजेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥<br><br>निरमल भइ काया ॥
सैयद असरफ मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर पियारा जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥<br>लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥<br>मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥<br>खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥<br>उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥<br>जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो पावै पारा ॥ <br>दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥<br><br>तीर ॥19॥
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।<br>
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥<br><br>
ओहि घर रतन एक निरमरा गुरु मोहदी खेवक मै सेवा हाजी शेख सबै गुन भरा चलै उताइल जेहिं कर खेवा <br>तेहि घर दुइ दीपक उजियारे अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे लाइ मोहि दीन्ह गियानू <br>सेख मुहम्मद पून्यो-करा अहलदाद भल तेहि कर गुरू सेख कमाल जगत निरमरा दीन दुनी रोसन सुरखुरू <br>दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं सैयद मुहमद कै वै चेला मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला <br>दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं दानियाल गुरु पंथ लखाए कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए <br>दुहुँ खंभ टेके सब महीं भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे दुहुँ के भार सिहिट थिर रही लिये मेरइ जहँ सैयद राजे <br>जेहि दरसे औ परसे पाया ओहि सेवत मैं पाई करनी पाप हराउघरी जीभ, निरमल भइ काया प्रेम कवि बरनी <br><br>
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर <br>जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥<br><br>उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥<br>अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥<br>अहलदाद भल एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि कर गुरू भाउ दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥<br>सैयद मुहमद सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥<br>दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥<br>भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥<br>ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥<br><br>चाउ ॥21॥
चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै सुगुरूजानी ॥पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥सेख बडे, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना <br>उन्ह हुत देखै पायउँ दरस चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं केर ॥20॥<br><br>गढे ॥बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥
एक नयन कबि मुहमद गुनी चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥<br>चाँद जैस एहि जग विधि औतारा । दीन्ह कलंकसाथ जो निबहा, कीन्ह उजियारा ॥<br>ओहि जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥<br>जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥<br>कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥<br>जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥<br>जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥<br><br>बिछुरन कित्त ?॥22॥
एक नयन जस दरपन जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥निरमल तेहि भाउ बिनती पँडितन सन भजा <br>टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै चाउ ॥21॥<br><br>कूँजी ॥ रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥
चारि मीन मुहमद कबि मुहमद पाए जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥<br>युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥<br>पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥<br>मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥<br>सेख बडेजेइ मुख देखा तेइ हसा, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना ।<br>चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥<br>बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि सुनि तेहि बासा ॥<br><br>आयउ आँसु ॥23॥
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त सन नव सै सत्ताइस अहा <br>कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥एहि जग साथ सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो निबहानियरे, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥<br><br>जस गुड चाँटा ॥
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ भँवर आइ कबि कीन्ह बखानू ॥<br>औ बिनती पँडितन बनखँड सन भजा कँवल कै बास टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥<br>हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥<br>हिय भंडार नग अहै दादुर बास न पावई भलहि जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥ <br>रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥<br>जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥<br>फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥<br><br>आछै पास ॥24॥
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।<br>
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥<br><br>
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥<br>
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥<br>
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥<br>
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥<br>
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥<br>
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥<br>
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥<br><br>
 
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।<br>
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥<br><br>
 
 
 
 
 
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर
मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त,
स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
 
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता
है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
 
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा ।
चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
 
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
 
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
 
(7) सिरजना=रचना ।
 
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
 (11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरानमें लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात्अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य  (13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था ।जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधिकाँदौ = कर्दम, कीचड ।  (15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक मेंपहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।  (16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उनकी चौदहवीं तिथि पडती है ।) (17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।  (18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।  
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
 (20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।  (21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।  (22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन =चौदह विद्याएँ । (23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी ।  (24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।</poem>
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