{{KKRachna
|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
|अनुवादक=|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी}} <poem>सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥
'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥
ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड ताकर साजू ॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ -राजा ॥
सोरह सहस घोड घोडसारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू ?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥
सिंघलदीप कथा अब गावौं ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥<br>निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥<br>धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥<br>सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न ओहि सरि जोगू ॥<br>दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥<br>जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥<br>दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥<br><br>कोइ ॥2॥
सब संसार परथमैं आए सातौं जबहि दीप नियरावा जाई ।<br>जनु कबिलास नियर भा आई ॥एक दीप घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड लागै तेहि माहाँ ॥ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥<br><br>आइ सहै यह धूपा ॥
ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजाअस अमराउ सघन घन, वह ताकर देसू ॥<br>लंका सुना जो रावन राजू बरनि न पारौं अंत । तेहु चाहि बड ताकर साजू ॥<br>छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ -राजा ॥<br>सोरह सहस घोड घोडसारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥<br>सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥<br>अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥<br>नरपतीक कहँ और नरिंदू ?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥<br><br>फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ फरै आँब अति सघन सोहाए ।<br>औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥कटहर डार पींड सन पाके । बडहर, सो अनूप अति ताके ॥खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥लाग सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥<br><br>जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥
जबहि दीप नियरावा जाई लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर । जनु कबिलास नियर भा आई ॥<br>आसपास घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥<br>तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥<br>मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड लागै तेहि माहाँ ॥<br>ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥<br>पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥<br>जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥<br><br>इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा ।<br>करहिं हुलास देखि कै साखा ॥फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥<br><br>भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥
फरै आँब अति सघन सोहाए जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ । औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥<br>कटहर डार पींड सन पाके । बडहर, सो अनूप अति ताके ॥<br>खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥<br>नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥<br>पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥<br>और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥<br>लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥<br><br>आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥
लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर पैग पैग पर कुआँ बावरी ।<br>साजी बैठक और पाँवरी ॥आसपास घन इमिली और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ घन तार खजूर ॥4॥<br><br>सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत । करहिं हुलास देखि कै साखा ॥<br>भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥<br>सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥<br>"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥<br>`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥<br>`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥<br>कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥<br><br>आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ मानसरोदक बरनौं काहा ।<br>भरा समुद अस अति अवगाहा ॥आपनि आपनि भाषा लेहिं दई पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥खँड खँड सीढी भईं गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ॥फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर नाउँ ॥5॥<br><br>छाता ॥उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥खनि पतार पानी तहँ काढा । छीरसमुद निकसा हुत बाढा ॥
पैग पैग पर कुआँ बावरी ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख । साजी बैठक और पाँवरी ॥<br>और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। देखि रूप सरवर कै गै पियास औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥<br>मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥<br>कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥<br>कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥<br>कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥<br>कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥<br><br>भूख ॥7॥
सेवरापानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥लंक-सिंघिनी, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत सारँगनैनी ।<br>हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥<br><br>आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥
मानसरोदक बरनौं काहा माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप । भरा समुद अस अति अवगाहा ॥<br>पानि मोती जेहि के अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥<br>लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥<br>खँड खँड सीढी भईं गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ॥<br>फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥<br>उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥<br>खनि पतार पानी तहँ काढा । छीरसमुद निकसा हुत बाढा ॥<br><br>पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं । <br>सूझै वार पार किछु नाहीं ॥देखि रूप सरवर फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥उतरहिं मेघ चढहि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै गै पियास औ भूख ॥7॥<br><br>बानी ॥पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥
पानि भरै आवहिं पनिहारी नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥<br>पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥<br>लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥<br>आवहिं झुंड जो मरजिया होइ तहँ सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥<br>कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥<br>जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥<br>केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥<br><br>पावै वह सीप ॥9॥
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप आस-पास बहु अमृत बारी ।<br>फरीं अपूर होइ रखवारी ॥जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥<br><br>नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥ लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥
ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि । सूझै वार पार किछु नाहीं ॥<br>फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥<br>उतरहिं मेघ चढहि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु लागी घरी ग्हट कै बानी ॥<br>पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥<br>चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥<br>कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥<br>बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥<br><br>सीचहिं अमृतबेल ॥10॥
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा ।<br>बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥<br><br>बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवडा चंपा कुंद चमेली ॥सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥
आसतेहिं सिर फूल चढहिं वै जेहि माथे मनि-पास बहु अमृत बारी भाग । फरीं अपूर होइ रखवारी ॥<br>नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम आछहिं सदा सुगंध बहु भेद अँजीरा ॥<br>गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥<br>किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥ <br>लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥<br>फरे तूत कमरख जनु बसंत औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥<br>संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥<br><br>फाग ॥11॥
पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि सिंगलनगर देखु पुनि बसा ।<br>लागी घरी ग्हट धनि राजा अस जे कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥<br><br>दसा ॥ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥ राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप । बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥<br>बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवडा चंपा कुंद चमेली ॥<br>सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥<br>जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥<br>नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥<br>सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥<br>मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥<br><br>घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥
तेहिं सिर फूल चढहिं वै जेहि माथे मनि-भाग पुनि देखी सिंघल फै हाटा । <br>नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग ॥11॥<br><br>कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?॥
सिंगलनगर देखु पुनि बसा कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ । धनि राजा अस जे कै दसा ॥<br>ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥ <br>राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥<br>रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥<br>सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥<br>मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥<br>सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥<br><br>कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥
अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप पुनि सिंगारहाट भल देसा ।<br>किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥घर घर नारि पदमिनी मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥<br><br>सुनि, पैग न जाहीं ॥भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥
पुनि देखी सिंघल फै हाटा चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥<br>कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥<br>रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥<br>सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥<br>रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥<br>औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥<br>जिन्ह एहि हाट साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?॥<br><br>भेंट ॥14॥
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ लेइ के फूल बैठि फुलहारी ।<br>पान अपूरब धरे सँवारी ॥सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥कतहूँ कथा कहै किछु कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥<br><br>। कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥
पुनि सिंगारहाट भल देसा चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥<br>मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥<br>हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥<br>भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥<br>अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥<br>कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥<br>केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥<br><br>जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट पुनि आए सिंघल गढ पासा ।<br>का बरनौं जनु लाग अकासा ॥साँठ नाठि उटि भए बटाऊतरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, ना पहिचान जाइ नहिं झाँका ॥अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि न भेंट ॥14॥<br><br>जाइ, दीठि तन थाका ॥
लेइ के फूल बैठि फुलहारी हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर । पान अपूरब धरे सँवारी ॥<br>सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥<br>कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥<br>कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥<br>कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥<br>कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥<br>कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥<br><br>कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच निति गढ बाँचि चलै ससि सूरू ।<br>नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥<br><br>पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥पौरहि पौरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ॥बहुबिधान वै नाहर गढे । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढे ॥टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥कनक सिला गढि सीढी लाई । जगमगाहि गढ ऊपर ताइ ॥
पुनि आए सिंघल गढ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥<br>तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥<br>परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥<br>अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥<br>नवौं खंड नव पौरी बाँकी, नवखंडा औ तहँ बज्र-केवार । नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥<br>कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥<br>लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि न जाइचारि बसेरे सौं चढै, दीठि तन थाका ॥<br><br>सत सौं उतरे पार ॥17॥
हिय नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?॥तुम्ह तेहि चाक चढे हौ काँचे । आएहु रहै न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर थिर होइ बाँचे ॥घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ ।<br>का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ?॥ कहँ लगि कहौं ऊँचाईपहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥<br><br>मन जाग न सोई ॥
निति गढ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥<br>पौरी नवौ बज्र मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै साजी रीति । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥<br>फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥<br>पौरहि पौरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ॥<br>बहुबिधान वै नाहर गढे । जनु गाजहिंघरी जो आई ज्यों भरी , चाहहिं सिर चढे ॥<br>टारहिं पूँछढरी, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥<br>कनक सिला गढि सीढी लाई । जगमगाहि गढ ऊपर ताइ ॥<br><br>जनम गा बीति ॥18॥
नवौं खंड नव पौरी गढ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, औ तहँ बज्रकीच कपूरु ॥ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥कंचन-केवार बिरछि एक तेहि पासा ।<br>जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥चारि बसेरे सौं चढैमूल पतार, सत सौं उतरे पार ॥17॥ <br><br>सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा ?॥चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥
नव पौरी पर दसवँ दुवारा राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥<br>घरी जेइ पावा सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥<br>जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥<br>परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?॥<br>तुम्ह तेहि चाक चढे हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥<br>घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ?॥ <br>पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजरअमर भा, मन जाग ना किछु व्याधि न सोई ॥ <br><br> रोग ॥19॥
मुहमद जीवन-जल भरनगढ पर बसहिं झारि गढपती । असुपति, रहँटगजपति, भू-घरी कै रीति नर-पती ॥सब धौराहर सोने साजा ।<br>अपने अपने घर सब राजा ॥घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम गा बीति ॥18॥<br><br>न जाना ॥मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥पासा ढरहिं खेल भल होई । खडगदान सरि पूज न कोई ॥भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड सिंघली ॥
गढ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥<br>और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृतमँदिर मँदिर फुलवारी, कीच कपूरु ॥<br>ओहि क पानि राजा पै पीया चोवा चंदन बास । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥<br>कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥<br>मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा ?॥<br>चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥<br>वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥<br><br>निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥
राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग पुनि चलि देखा राज-दुआरा ।<br>मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥जेइ पावा सो अमर भाहस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ पहारा ॥कौनौ सेत, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥<br><br>पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥
गढ पर बसहिं झारि गढपती । असुपतिधरती भार न अगवै, गजपति, भू-नर-पती ॥<br>सब धौराहर सोने साजा पाँव धरत उठ हालि । अपने अपने घर सब राजा ॥<br>रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥<br>भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥<br>मँदिर मँदिर सब कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥<br>पासा ढरहिं खेल भल होई । खडगदान सरि पूज न कोई ॥<br>भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड सिंघली ॥<br><br>चालि ॥21॥
मँदिर मँदिर फुलवारीपुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥लील, चोवा चंदन बास समंद चाल जग जाने ।<br>हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥<br><br>हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड न पाँव, पार होइ आवहिं ॥थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥
पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥<br>हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव अस तुखार सब ठाढ पहारा ॥<br>कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥<br>बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी देखे जनु ठेघा ॥<br>सिंघल मन के बरनौं सिंघली रथवाह । एक एक चाहि एक एक बली ॥<br>गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥<br>माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥<br><br>नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥
धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि राजसभा पुनि देख बईठी ।<br>इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥कुरुम टुटैधनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥रूपवंत, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥<br><br>मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥
पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस उन्हकै रंगा ॥<br>लील, समंद चाल जग जाने आप । हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥<br>हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥<br>तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥<br>मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥<br>पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड न पाँव, पार होइ आवहिं ॥<br>थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछसभा कँवल अस बिगसै, सीस उपराहीं ॥<br><br>माथे बड परताप ॥23॥
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस तुखार राजा ॥हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥भाव कटाव सब देखे जनु मन के रथवाह अनबत भाँती ।<br>चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥नैनलाग खंभ-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥<br><br>मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥
राजसभा पुनि देख बईठी सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात । इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥<br>धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥<br>मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥<br>रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥<br>मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥<br>पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥<br>माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥<br><br>बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥
छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप वरनों राजमंदिर रनिवासू ।<br>जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥ सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड परताप ॥23॥<br><br>सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥<br>सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥<br>हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥<br>जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥<br>भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥<br>लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥<br>देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥<br><br> सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।<br>बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥<br><br> वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥ <br>सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥<br>अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥<br>तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥<br>पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥<br>निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥<br>सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥<br><br> कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।<br>जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥<br><br> (1) बारी = बाला, स्त्री । सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे । भूगोलल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णदीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है । हरा = शून्य (2) तुखार =तुषार देश का घोडा । इंदू =इंद्र । चाहि = अपेक्षा (बढकर)बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग ।
(1) बारी = बाला, स्त्री । सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे । भूगोलल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णदीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है । हरा = शून्य
(2) तुखार =तुषार देश का घोडा । इंदू =इंद्र । चाहि = अपेक्षा (बढकर) बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग ।
(3) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर) लागि = तक ।
(4) पींड = जड के पास की पेडी । फुरै = सचमुच । खजहजा = खाने के फल । अनबन =भिन्नभिन्न (5) चुहचूही =एक छोटी चिडिया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं । सारौं = सारिका, मैना । महरि = महोख से मिलती जुलती एक छोटी चिडिया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं । हारा = हाल, अथवा लाचारी, दीनता । (6) पैग पैग पर = कदम कदम पर । पाँवरी = सीढी । ब्रह्मचार = ब्रह्मचर्य । सुरसती = सरस्वती (दसनामियों में ) खेवरा = सेवडों का एक भेद । (7) भईं = घूमी हैं । गरेरी = चक्करदार । पाल = ऊँचा बाँध या किनारा, भीटा ।
(8) मेघावर = बादल की घटा । ता पाईं = पैर तक । बीजु - बिजली ।
(9) बानी = वर्ण, रंग, चमक । सोन,ढेक, बग, लेदी = ताल की चिडिया । मरजिया = जानजोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोताखोर । (10) हरफार््योरी = लवली । न्योजी = लीची । खँडवानी =काँड का रस । (11) कूजा = कुब्जक । पहाडी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद होते हैं ।घनबेली =बेलाकी एक जाति । नागेसर = नागकेसर । बकौरी = बकावली । बगुचा = (गट्ठा) ढेर, राशि ।सिंगार-हार = हरिसिंगार । शेफालिका । (12) मेद = मेदा एक सुगंधित जड । गौरा = गोरोचन । ओठँवि = पीठ टिकाकर । (13) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर । धवल = सफेदी । सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी । बेना =खस वा गंधबेन । बेसाहनी = खरीद । (14) बेसा = वेश्या । खुंभी = कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील । सारी = सारि, पासा । गथ = पूँजी । (15) साँठ =पूँजी । नाठि = नष्ट हुई ।सोंधा = सुगंध द्रव्य । गाँधी = गंधी । खिरौरी = केवडा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया । चिरहँटा = बहेलिया । पखंडी = कठपुतलीवाला ।
(16) करिन्ह = दिग्गजों ।
(17) पाजी = पैदल सिपाही । कोतवार । कोटपाल, कोतवाल । गुंजरि लीहा = गरज कर लिया ।(18) बसेरा = टिकान । (19) रहँट-घरी =रहट में लगा छोटा घडा । घरियार = घंटा ।घरी भरी = घडी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक घडिया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घडिया डूब जाती थी तब एक घडी का बीतना माना जाता था ।
(20) परस पखान = स्पर्शमणि, पारस पत्थर । सारी =पासा ।
(20) झारि = बिल्कुल या समूह । सरि पूज = बराबरी को पहुँचता है । खडगदान =तलवार चलाना ।
(21) बारा = द्वार । ठेघा = सहारा दिया । अँगवै = शरीर पर सहती है ।
(22) रजबार = राजद्वार । समंद = बादामी रंग का घोडा । हँसुल = कुम्मैत हिनाई, मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले । भौंर = मुश्की । कियाह = ताड के पके फल के रंग का । हरे = सब्जा । कुरंग = लाख के रंग का या नीला कुम्मेत । महुअ = महुए के रंग का गरर = लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा । कोकाह = सफेद रंग का । बुलाह = बुल्लाह, गर्दन और पूँछ के बाल पीले । ताजा - ताजियाना, चाबुक । अगमन = आगे । तुखार = तुषार देश के घोडे, यहाँ घोडे । (23) दर =दरवाजा । मेद =मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड । तवै = तपता है (24) उरेह = चित्र । उबेहे =चुनेहुए, बीछे हुए । कोरिकै = खोद कर । बेहर बेहर = अलग अलग ।
(25) बारह-बानी = द्वादशवर्णी, सूर्य्य की तरह चमकनेवाली ।
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