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साबुत आईने / धर्मवीर भारती
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04:40, 28 मई 2015
दर्पणों में चल रहा हूँ मैं
चौखटों को छल रहा
हु
हूँ
मैं
सामने लेकिन मिली हर बार
फिर वही दर्पण मढ़ी
दिवार
दीवार
फिर वही झूठे झरोखे द्वार
लौटकर फिर लौटकर आना वहीं
किन्तु इनसे
छुट
छूट
भी पाना नहीं
टूट सकता, टूट सकता काश
Sharda suman
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