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माँ बचाती थी धूप, बारिश से
सर पे आँचल को मेरे छा छा कर
 
आख़िरश हो गया बहुत मग़रूर
चार दिन में, ख़िताब पा पा कर
कितने मरते हैं भूक से, कितने
साँड़ जैसे हुए हैं खा खा कर
 
दस्ते मुफ़लिस पे कुछ तो रखना सीख
कम, ज़ियादा भले हो, ना ना कर
कोई आता नहीं मदद को 'रक़ीब'
देखते सब हैं दर को वा वा कर
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