Changes

दो पद / मानबहादुर सिंह

1,596 bytes added, 19:31, 9 जुलाई 2015
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''1'''
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा,
इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा ।
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा ।।
'''2'''
यह दंगा काना कंजा है,
इसका देसी हाथ मगर परदेशी ख़ूनी पंजा है ।
इकतरफ़ा देखे यह जालिम एक तरफ़ बिल्कुल अन्धा है
जो गड़ास इसके हाथों में महज किसी का धन्धा है ।
गरदन काट गढ़ें जो कुरसी, उनकी जाति भव्य कोने में
वे प्रभुता के सौदागर हैं, ख़ून बदलते हैं सोने में ।
तुम भी तो अब फार हार, सूई पर मरते पाग़ल होकर
जैसे खेत पड़ा हो बंजर, मारो मरो मेड़ को बोकर ।
दुश्मन जिस मैदान छिपा है, उसे छोड़ लड़ने का मतलब
साँप छोड़ उसके निशान को, पीट कर रहे अपना करतब ।
हिन्दू मारो, मुस्लिम मारो, असमी या पंजाबी मारो
सुखवन डाल कहीं वे बैठे, तुम झगड़ो घर अपना जारो ।
बाल नोच अपने पछताओ, इसका तन मन सब गंजा है
यह दंगा काना कंजा है ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits