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मंच-दाँ रहनुमा / संतलाल करुण

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|संग्रह=अतलस्पर्श / संतलाल करुण
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<poem>तुम हुए मंच-दाँ जब से मन निहाई हो गया
यों मगर खाली निहाई पीटने से क्या हुआ |
सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं
सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया |

तुम हुए रहनुमा मकसद घर से बाहर चल पड़े
पर तुम्हारी रहबरी ने क्या-क्या जिल्लत ना दिया |
लूटने का हुनर दौलत की हवस बढ़ती गई
आबरू पे भी निगाहें जीना मुश्किल कर दिया |

तुम सियासत के सदन से निकलकर बागी हुए
दर्द का मारा लगा हम सब के खातिर आ गया |
तेंदुए की चाल लेकिन तुम छिपा पाए नहीं
देखकर बस्ती का हर घर खौफ से सहम गया |

खूँ-पसीने की कमाई उजले कालिख में फँसी
हर फसल अच्छी रही पर हाथ कुछ भी ना मिला |
मंच से बोली लगाया बनके तुमने खेतिहर
चौधरी फिर खुद ही बन खलिहान सारा ले लिया |
</poem>
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