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निशागीत / राजकमल चौधरी

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खिड़कीसँ नीचाँ ससरि क’ससरिकय
इजोरिया
पसरि गेल अछिहरसिंगारक झमटगर छाहरिमेकेवाड़क केबाड़क दोगमे नुका रहल अछि
हमरे कोनो कविताक
एकटा नवीन पाँती...जेना हँसइत हो खिल-खिल हमरे दुलारि कन्याकन्या एहि जाड़मे बन्हने गाँतीआब जँ निन्न नहि भेलजीवन भरिजागल रहि जाएबजायबजीवन भरी भरि एहि झमटगर छाहरिक प्रत्याशामेलागल रहि जाएबजायबजागल रहि जाएब।''(रामकृष्ण झा ‘किसुन’ संपादित ‘मैथिलीक नव कविता’सँ, 1971)''
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