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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
ख़ुशी हो तो घर उनके हम कभी जाया नहीं करते
मेरे घर जो कभी ग़म में बशर आया नहीं करते

सुनाई दे रही है ग़ैब से आती सदा मुझको
बहुत ही क़ीमती है वक़्त ये ज़ाया नहीं करते

बज़िद थे इसलिए तुमको मना लाये मगर सुनलो
ज़रा सी बात पर यूँ रूठकर जाया नहीं करते

उन्हीं के नाम का चर्चा हुआ है और होगा भी
जो सहते हैं सितम लेकिन सितम ढाया नहीं करते

यहाँ कुछ लोग वाक़िफ़ ही नहीं आदाबे-महफ़िल से
भरी महफ़िल से उठकर यूँ कभी जाया नहीं करते

गए हैं, जा रहे हैं लोग जायेंगे क़यामत तक
जहाँ से लौट कर वापस कभी आया नहीं करते

सुने को अनसुना कर दे मुसीबत में किसी की जो
'रक़ीब' ऐसे बशर के पास हम जाया नहीं करते
</poem>
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