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गुलगुला / रामकृष्ण खद्दर

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<poem>छुट्टी हुई खेल की,
चढ़ी कढ़ाही तेल की।
सुर-सुर उठता बुलबुला,
छुन-छुन सिकता गुलगुला।
भुलभुला और पुलपुला,
मीठा-मीठा गुलगुला।
</poem>
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