1,295 bytes added,
21:41, 29 सितम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरीश दुबे
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>कड़ी धूप का बने खजाना, सूरज जी!
छोड़ो भी गरमी बरसाना, सूरज जी!
नर्म-मुलायम धूप बदलकर
आते हो क्यों रूप बदलकर!
सबको मुश्किल हो जाती है,
जब गर्मी की रुत आती है।
सीख गए क्यों आग उगाना, सूरज जी।
गर्म मिज़ाज किसे भाता है?
क्यों तुमको गुस्सा आता है?
नन्हे-नन्हे पंछी प्यारे,
भटक रहे प्यास के मारे!
बहुत हो गया रौब जमाना, सूरज जी।
सूखी नदियाँ, प्यासी गैया,
हाथी दादा कहाँ नहाएँ?
भालू कैसे प्यास बुझाए?
इसका कोई हल बतलाना, सूरज जी!
छोड़ो भी गरमी बरसाना सूरज जी!
</poem>