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{{KKRachna
|रचनाकार=मुकेश चन्द्र पाण्डेय
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<poem>कभी स्वीकारा है
पृथ्वी के भटकाव को,
दिशाहीनता से सीख लेकर किसी गंतव्य को नकारा है?
स्वप्नों को पनपते देखा है,
क्या फलित होते वृक्षों को छोड़ा है फलाफूला?
क्यों हर फसल को सींचते वक़्त
उसके लहराने की कल्पना की है हाथ में दराती रख कर?
चाँद की परछाई को पोखरों में क़ैद रखा है,
पंजे क्यों जमायें हैं ज़मीनों पर?
चीटियों को उड़ते हुए देख
विषाद से भर जाते हो, मातम करते हो,
क्या कभी सूर्य से आँखें मिलायी हैं?
गंजे पहाड़ों पर छांव की अपेक्षा रखते हो,
कभी किसी एक चीड़ को सुलगने से बचाया है?
हर शब्द को अर्थ से पहचानने की चेष्टा रहती है,
कभी अंतर के अंधकार में लोप होते स्वम को टटोला है ?
चिड़ियों का चहचहाना मुग्ध कर देता है तुम्हें,
कभी तिनके से सी के भी गाँठें लगायी हैं ?
तितलियों के वास्ते रंग
संचित करते देखा जा सकता है क्या तुम्हें कभी,
व तुम्हारी संभावनाओं में विफलता के लिए भी
कोई स्थान रिक्त है या नहीं ?</poem>
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