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16:37, 4 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
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<poem>
मैं ही वह मैं नहीं हूँ,
या यह शहर पराया है ?
मेरी आँखों में उमड़ते हुए
सैलाव को कोई देखता नहीं ।
इस तरह गुजऱ जाता हूं
इस शहर की गलियों से
जैसे कि यहाँ कोई मुझे
जानता नहीं।
ये लोग भी कैसे हैं
गुमसुम-से
थके-हारे- से
खुद अपनी ही तस्वीर को
पहचानते नहीं ।
मैं खो गया हूँ भीड़ में
मेरी पहचान भी गुम है
अब जाकर किसे पूछूँ
मुझे जानते हो क्या ?
</poem>