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16:46, 4 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
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<poem>
मेरी आंखें खोज रहीं
वह मंज़र जाने कहां गया
भाव जम गए एक एक कर
बर्फ बन गया वक्त और
सर्द हवाएँ तन को चीरे
भीतर ही गुमनाम हो गई
क्या होगा अब जीवन का
सांसें मेरी ढूंढ रहीं
वह स्वर न जाने कहां गया
</poem>