2,514 bytes added,
20:09, 4 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
अब तक जो हम जीते आए
वह सब एक छलावा था
कभी अचानक राज़ खुले तो कैसा हो
मन के भीतर अटे पड़े
उन अरमानों का क्या होगा
जिनके दम पर हमनें सारी उम्र बिता दी
काम का मनचाहा फल पाओ
सब नें बचपन से सीखा है
फजऱ् और हक़ अलग भला कैसे समझें अब
तोड़-जोड़ में उलझे
उन सब इन्सानों का क्या होगा
फल की आस में जिननें सारी उम्र बिता दी
इस जग की तो रीत यही है
जो भी आया चला गया
मुझ को भी जाना है यह कैसे मानूं
गुपचुप देखे सपनों के उन उनवानों का क्या होगा
जिनका ताना बाना बुनते रात बिता दी
फल से बीज बीज से फल है
जो बोया उग आएगा
इच्छाओं के जमघट की है बात निराली
आस में बैठे क्या जाने
उन दहकानों का क्या होगा
खींच तान में जिननें अपनी फसल लुटा दी
घुटन भरे इन बाज़ारों में
जीना कितना मुश्किल है
अपनी ही गर्दन कटवा कर चौराहे पर
लहू बेचने निकल पड़े
उन नादानों का क्या होगा
अनजाने में जिननें अपनी जान लुटा दी
चुप रहना मुश्किल लगता है
कुछ कहें तो रुसवाई होगी
अपनी हस्ती का गला घोंट कर जीते हैं
अब क्या जाने उन अरमानों का क्या होगा
जो मन में ही दबे रहे और उम्र बिता दी
</poem>