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13:19, 5 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=योगेंद्रकुमार लल्ला
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|संग्रह=
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<poem>एक आम का पेड़, लगा था
उस पर बहुत बड़ा रसगुल्ला,
उसे तोड़ने को सब बच्चे
मचा रहे थे हल्ला-गुल्ला!
पर मेरी ही किस्मत में था
उसको पाना, उसको खाना!
मैंने देखा स्वप्न सुहाना!
सारे बच्चे इम्तहान के दिन
बैठे थे अपने घर पर,
खुली किताबें रखीं सामने
सभी पास हो गए नकल कर!
पर मेरी ही किस्मत में था
सब बच्चों में अव्वल आना
मैंने देखा स्वप्न सुहाना!
ओलंपिक के खेल हो रहे
भारत के ही किसी नगर में,
बच्चा-बच्चा खेल रहा था
घर-आँगन में डगर-डगर में!
पर मेरी ही किस्मत में था
सारे पदक जीतकर लाना
मैंने देखा स्वप्न सुहाना!
</poem>