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मेरे भीतर कई समंदर / पृथ्वी पाल रैणा
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,
14:51, 5 अक्टूबर 2015
आज जो बेबसी का आलम है,
मेरी हस्ती मिटा के दम लेगा।
ग़म छुपाने से कम नहीं होते
,
मेरे भीतर कई समन्दर हैं
सब्र के
रोज़ इम्तिहां होंगे।
इतने इम्तिहाँ होंगे
जब यह हिम्मत जबाव दे देगी,
वक्त भी साथ अपना कम देगा।
वक़्त चूलें हिला के दम लेगा
</poem>
द्विजेन्द्र ‘द्विज’
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