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मेरे घर आना / राजनारायण चौधरी

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<poem>परी! कभी मेरे घर आना!
आना अपनी पाँखें खोले
उड़ती-उड़ती हौले-हौले,
आ मुझसे घुल-मिल बतियाना!

सुघड़ दूधिया गोटे वाली
जिसमें कढ़ी हुई हो जाली-
चूनर वहतन पर लहराना!

इंद्रधनुष के रंग चुराकर
दे जाना धरती पर आकर,
तितली जैसे तुम इठलाना!

सैर करेंगे हम उपवन की
बातें होंगी दूर गगन की,
मैं नाचूँगा, तुम कुछ गाना!

रात ढले चाँदनी झरे जब
कोई आँखों नींद भरे जब-
लोरी गाकर मुझे सुलाना!

-साभार: नंदन, अप्रेल 97
</poem>
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