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21:43, 5 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>
तन्हाई तेरी यादों की ऐसी छलनी लाती है
देह की माँसलता, आँखें, लब इक इक शय छन जाती है
मेरे दिल के अन्दर अब भी बारिश शोर मचाती है
बाहर देखो जून की गर्मी कितनी आग लगाती है
सर्दी की रातों की बारिश में भी ठंढ नहीं लगती
तुमसे मिलकर अब समझे हम धूप कहाँ रुक जाती है
दूर बहुत परदेस है मेरे दिल का कलेवा कर जाना
सुनते हैं रस्ते में ज़ियादा ही कुछ भूख सताती है
भीड़ बहुत बढती जाती है लेकिन मुझको बतलाओ
एक जगह दिल के कोने में क्यूँ खाली रह जाती है
सांवली नंगी बांह पे बालों के छोटे छोटे रेशे
अंगड़ाई लेते हो तो हर सीवान शोर मचाती है
उस सीने के दो चांदों से जब भी आँचल ढल जाए
आधे चाँद की गोरी बारिश कैसी गोट लगाती है
शह्र का इक इक पर्दा यारो तेज़ हवा में उड़ने लगा
भीगी भीगी छांव कोई उस खिड़की पर मंडराती है
आँखों की कुइयां में शायद अब पानी की बूँद नहीं
बोझल साँसों की हर रस्सी खाली खाली आती है