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23:44, 5 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=भगवतीप्रसाद द्विवेदी
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|संग्रह=
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{{KKCatBaalKavita}}
<poem>दिखे मौत का कुआँ-कुआँ,
सभी ओर बस धुआँ-धुआँ!
सुबह-सुबह ही धुआँ उगलतीं
दैत्याकार चिमनियाँ,
जगते ही दिखती है काली
धुआँ भरी यह दुनिया।
शोर, चिल्ल-पों, हुआँ-हुआँ!
निकले सड़कों पर तो सारे
वाहन धुआँ उगलते,
जी मिचलता, दम घुटता है
नेत्र हमारे जलते।
किन रोगों ने हमें छुआ?
कार्बन की कालिख-सी परतें
चेहरे पर छा जातीं,
धूल, धुआँ, ज़हरीली गैसें
अपना असर दिखातीं।
महानगर बीमार हुआ।
सारे वाहन कार, बसें, ट्रक
टैंपो औ’ स्कूटर,
उठता धुआँ कारखानों से
दमघोंटू बिजलीघर।
चेतो भाई-बहन-बुआ!
कैन्सर है यह मुआ धुआँ!
</poem>