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सर्कस का जोकर / विनोद 'भृंग'

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<poem>मम्मी, मुझको प्यारा लगता
सर्कस का जोकर,
खूब हँसाता है, हम सबको,
झूठमूठ रोकर!
रंग-बिरंगे कपड़े पहने
लम्बी टोपी काली,
बौना है पर गोलमटोलम
चाल बड़ी मतवाली!
कभी लाट साहब बन जाता
और कभी नौकर!

हाथी, भालू, बंदर के सँग
यह जब खेल दिखाता,
खेल देखकर बच्चा-बच्चा
लोट-पोट हो जाता!
उछल-कूद में कभी-कभी तो
खा जाता ठोकर!

मेरा भी जी करता मम्मी,
मैं जोकर बन जाऊँ,
ढेरों करतब अच्छे-अच्छे
मैं करके दिखलाऊँ!
भर्ती हो जाऊँ सर्कस में
अभी बड़ा होकर!
</poem>
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