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19:56, 9 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
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मन में आग अधर हैं प्यासे चेहरों पर फिर भी मुस्कान
मृत आवाज़ों का कोलाहल मीलों तक बस्ती बीरान
इंसानों का जंगल दुनिया चेहरे दर चेहरे इंसान
जग में आकर जीव-फ़रिश्ता भूल गया अपनी पहचान
एक निराली तितली जैसी इच्छा भीतर जगते ही
रंग बिरंगी कई तितलियाँ बन कर घिर आए अरमान
सुंदर मनमोहक इस जग का एक नज़ारा पाते ही
भ्रमित हुई बुद्धि, चेहरे पर चिपक गई मीठी मुस्कान
ख़ूब हुआ फिर खेल, जगत से इतने रिश्ते बांधे
छोडूं किसे निभाऊँ किसको बौराई नन्ही सी जान
कालचक्र ने तभी अचानक ऐसा रंग दिखाया
सभी तितलियाँ हुई नदारद लौट आई पिछली पहचान
जीवन ने करवट बदली तो आँख मूँद कर यह सोचा
इतना लम्बा जीवन जीकर भी राहें अब तक अनजान
अपनी ही बस्ती में अब तो अपनों जैसे लोग नहीं
आगे बढ़ कर गले लगा ले कहाँ गए ऐसे इन्सान
चाहत की बाज़ी खेले तो चाह चौगुनी हो जाए
डर की चौखट पर बैठा है जग का अनजाना मेहमान
</poem>