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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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हाय हम तश्नादहन<ref>प्यासे</ref>दूर से क्या-क्या समझे
रेत ही रेत बिछी थी जिसे क्या-क्या समझे

ज़िन्दगी मैं तिरे काँटों में पड़ा हूँ अक्सर
मेरी तकलीफ़ भला कैसे मसीहा समझे

आपने अपने ही हाथों से किया है बरबाद
और मुझे आप ही तक़़दीर का मारा समझे

तुमने तो छोड़ दिया दश्त में ला कर मुझको
वो तो कहिये कि बयाबाँ मुझे अपना समझे
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