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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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रक्खी गई है नींव जहाँ पर मकान की
होती है इब्तिदा भी वहीं से ढलान की

बुनियाद है क़दीम<ref>पुरानी</ref> कहीं बैठ ही जाये
अब और मंज़िलें न बढ़ाओ मकान की

चीज़ें अगर खरी भी नहीं हैं तो क्या हुआ
गाहक को खींचती है सजावत दुकान की

मुंसिफ़<ref>न्यायाधीश</ref> ये चाहता है गवाही तो हो मगर
अंधे की हो किसी या किसी बेज़बान की
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