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प्रकृति माँ / मनोज चौहान

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हे प्रकृति माँ ,
मैं तेरा ही अंश हूं,
लाख चाहकर भी,
इस सच्चाई को ,
झुठला नहीं सकता ।

मैंने लिखी है बेइन्तहा,
दास्तान जुल्मों की,
कभी अपने स्वार्थ के लिए,
काटे हैं जंगल,
तो कभी खेादी है सुंरगें,
तेरा सीना चीरकर ।

अपनी तृष्णा की चाह में,
मैंने भेंट चढ़ा दिए हैं,
विशालकाय पहाड.,
ताकि मैं सीमेंट निर्माण कर,
बना संकू एक मजबूत और,
टिकाऊ घर अपने लिए ।

अवैध खनन में भी ,
पीछे नहीं रहा हूँ ,
पानी के स्त्रोत,
विलुप्त कर,
मैंने रौंद डाला है,
कृषि भूमि के,
उपजाऊपन को भी l

चंचलता से बहते,
नदी,नालों और झरनों को,
रोक लिया है मैंने बांध बनाकर,
ताकि मैं विद्युत उत्पादन कर,
छू संकू विकास के नये आयाम l


तुम तो माता हो,
और कभी कुमाता,
नहीं हो सकती,
मगर मैं हर रोज ,
कपूत ही बनता जा रहा हूं।
अपने स्वार्थों के लिए ,
नित कर रहा हूँ ,
जुल्म तुम पर,
फिर भी तुमने कभी ,
ममता की छांव कम न की ।

दे रही हो हवा,पानी,धूप,अन्न
आज भी,
और कर रही हो,
मेरा पोषण हर रोज।
</poem>