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18:13, 24 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
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|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
शाम ढले भी घर पहुँचूँ तो आधी रात लगे
मुट्ठी बंद किये बैठा हूँ कोई देख न ले
के चाँद पकड़ने घर से निकला जुगनू हात लगे
तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए
आँखों का ये हाल है अब तक कल की बात लगे
तुम ने इतने तीर चलाये सब ख़ामोश रहे
हम तड़पे तो दुनिया भर के इल्ज़ामात लगे
खत में दिल की बातें लिखना अच्छी बात नही
घर में इतने लोग हैं जाने किसके हात लगे
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
इन आँखों के आगे बादल बे-औक़ात लगे
</poem>
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