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21:58, 24 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
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<poem>ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
शायद उन को पल भर सोचें और ग़ज़ल हो जाए
जिस दीपक को हाथ लगा दो जलें हज़ारों साल
जिस कुटिया में रात बीता दो ताज-महल हो जाए
कितनी यादें आ जाती है दस्तक दिए बगैर
अब ऐसी भी क्या वीरानी घर जंगल हो जाए
तुम आओ तो पंख लगा कर उड़ जाए ये शाम
मीलों लम्बी रात सिमट कर पल दो पल हो जाए
</poem>
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