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18:37, 28 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
इक अजनबी हूं, धुन्ध का चश्मः लगा के देख
मेरी तरफ़ ख़ुदारा न यूं मुस्करा के देख
दिल में किसी के दर्द का सपना सजा के देख
ख़ुशबू का पेड़ है इसे घर में लगा के देख
सच और झूठ दोनों ही दर्पण हैं तेरे पास
किस में तिरा यह रूप निखरता है जा के देख
जो देखना है कैसे जिया हूं तिरे बग़ैर
दोनों तरफ़ से मोम की बत्ती जला के देख
दरिया है तू तो राह का पत्थर नहीं हूं मैं
बहर-ए-ख़लूस हूं कभी मुझ तक तो आ के देख
मेरी हर एक याद से मुन्किर हुआ है तू
जो गर ख़ुद पे ए‘तिमाद है मुझको भुला के देख
“ज़ाहिद” हर एक शख़्स है ग़म ही का तर्जुमः
अपने ग़मों की कै़द से बाहर तो आ के देख
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</poem>