1,634 bytes added,
18:41, 28 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
ख़्यालों और ख़्वाबों से भरी गुलबर्ग सी आंखें
बुलाती हैं मुझे अब तक तुम्हारी सोचती आंखें
तुम्हारे बा‘द नाबीनों के भी काम आयेंगी आंखें
कि बा‘द-ए-मर्ग लौटा दो ख़ुदा की दी हुई आंखें
जगाते हैं हमेशः शो‘बदः अपने ही जादू से
अधूरी बात, अधनंगा बदन या अधखुली आंखें
वो अस्ली थे या नक़्ली उम्र भर सोचा यही मैंने
मुझे भूली नहीं लेकिन वो अश्कों से भरी आंखें
यह फ़ानी जिस्म भी मरने के बा'द आयेगा काम उनके
बफ़ैज़-ए-इल्म इंसां का भला जो सोचती आंखें
वो मशरिक़ हो कि मग़रिब हर जवां तहज़ीब में “ज़ाहिद”
नया रस्ता दिखाती हैं सुनहरे ख़्वाब की आंखें
{{KKMeaning}}
</poem>