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10:05, 29 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मधु आचार्य 'आशावादी'
|संग्रह=अमर उडीक
}}
[[Category:मूल राजस्थानी भाषा]]
{{KKCatKavita}}<poem>
सुणी ही
लोग कैवै भी है
भींतां रै ई कान हुवै
इण खातर हर बगत
सोच’र कीं बोलणो।
पण
लारलै केई बरसां सूं
राजधानी मांय
लोग हाका करै मूंघाई रा
किरसा रोवै बळती फसल सारू
पण राज करणिया देखै-सुणै
खाली करता रैवै
थारी-म्हारी।
कान तो बां रै ई है
फेर बै क्यूं नीं सुणै!
हाका कर’र
माडाणी सुणावणी पड़ै बांनै बातां
भींतां तो सुण लेवै
ओलै-छानै री ई बातां
फेरूं
मिनख किणनै मानां
भींतां नै, कै
राज करणियां नै!
</poem>