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{{KKRachna
|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
कहलनि बालि रूकह तों बाहर,
हम करैत छी गुफा प्रवेश।
एक मास धरि नहि घुरिआबी,
बुझिहः हमनहि रहलहु शेष।
कयलहुँ तहिना जहिना कहलनि,
मास अवधि छल भेल समाप्तं
ताहू पर रूधिरक प्रवाह छल,
गुफा मध्य अधिकाधिक व्याप्त।
मारल गेला बालि युद्धहिमे,
जानि गुफा पर पाथर देलं
चलि अएलहु घुरि अपन नगरमे,
तखनहिसँ अछि बदलल खेल।
मंत्री गण हठ कए बैसौलनि,
सिंहासन पर भेला नेहाल।
डुबा देलनि चिंता सागरमे,
विपति संग नहि छोड़ए भाल।
किछु दिन बाद बालि घुरि अएला,
छला मनहि मन क्रोधे अंध।
गुफा बंद सुग्रीवहि कयलनि,
अछि ई ओकरे कपट प्रबंध।
अबतहि मारि भागौलनि हमरा,
छीनि सुखक सभटा समृद्धि।
पत्नी सेहो छीनि छथि रखने,
से कयने अति सय दुख वृद्धि।
शापक बस भए नहि अबैत छथि,
ऋष्यमूक पर ओ बलबंत।
भय पैसल छनि हुनको मनमे,
नहि भए जाए हमरे अंत।
करूण व्यथा गाथा सुग्रीवक,
सुनि करूणानिधि भेला प्रतप्त।
भुजा उठा संकल्प सुनौलनि,
हतब बालि जुनि रहु संतप्त।
जाए नगर ललकारू ओकरा,
आबए युद्धस्थल केर बीच।
भ्रातृ वधू संसर्ग पापफल,
निश्चय मरत जरत ओ नीच।
जनै छिऐ बल प्रवल ओकर हम,
जे प्रत्यक्षमे लड़ता वीर।
आधावल तकरो चलि अओतै,
ग्रहण कए लेतै बालि शरीर।
ते हम ओट ताकिकें छोड़ब,
बालिक उपर भीषण वाण।
बचा सकत नहि कालहुँ ओकरा,
पल भरिमे त्यागत ओ प्राण।
पाबि सुखद आदेश राम केर,
लड़ता बालि संग सुग्रीव।
किन्तु ने सहि सकला प्रहारकें,
भगला ग्लानिक संग सजीव।
भेल हतप्रभ बहु खौंझैला,
रघुवर पर, अतिसैं दुख देल।
प्रबल प्रहार करा एहि तन पर,
जीवन हमर बनौलहुँ खेल।
नहि नहि नहि औ मित्र कीशपति,
चीन्हि ने सकलहुँ अहँक शरीर।
रंग ढंग तन वदन एक छल,
चला दितहुँ ककरा पर तीर।
चिन्ह दैत छी जाउ अहाँ पुनि,
रहत दृष्टिमे ई संकेत।
निश्चय मानू हमर कथाकें,
एहि बेर विजश्री देत।
मन नहि रहितहुँ गेला लड़यहित,
कयलनि पुनि युद्धक आरम्भ।
तखनहि वाण तीव्र गति लागत,
तोड़ल बालिक सभटा दम्भ।
मृत्यु निकट लखि सिय पति रघुवर,
गेला बालि बल प्रवल समीप।
खौंझा कए बाजए ओ लागल,
कोना भेलहुँ कोशलक महीप।
छलहुँ बली तऽ लड़ितहुँ सम्मुख,
देखा दितहुँ बल बालिक रूप।
अन्यायक पलड़ा भारी कए,
कोना कहायब त्रिभुवन भूप।
छोट भ्रातृ पत्नीके रखलहुँ,
राम कहल कयलहुँ अन्याय।
शास्त्र पुराण कहै छथि सभटा,
हतब ओकर अछि विहित उपाय।
शांत भेला सुनि वचन रामकेर,
बालि जोड़ि कर कयल प्रणामं
क्षमा करिअ सभ दोष हमर प्रभु।
दीअऽ अपन लोकहि विश्राम।
दए आशीष राम पुनि अएला,
सुग्रीवक कयलनि अभिशेष।
मधुमए वातावरण भेल छल,
रहल ने कनिओं दुख अरू क्लेश।
बिसरि गेला सुग्रीव बात सभ,
भेल छलनि जे रामक संग।
पता लगायब सीताजीकें,
राज्यक लए सभ शक्तिक अंग।
राज्यक होइ अछि बड़ मिठगर,
बहु बिसरै छथि काजक बात।
जकरासँ उपकार लैत छथि,
तकरे पर करबहु अभिघात।
मासक मास बितैत गेल छल,
तैयो नहि सुग्रीवक ध्यान।
एहि दिशामे खिंचा रहल छल,
नहि सुझैत छल कोनो विधान।
एमहर नयन रामक नित झहरए,
सीताजीक छल प्रबल वियोग।
बजा लखनकें सभटा कहलनि,
आगुक हेतु करू उद्योग।
लखन गेला पंपापुर तखनहि,
वानर पतिकें कयलनि सोझ।
डांटि डपटि स्मरण करौलनि,
छला उठौने जतबा बोझ।
गेला बजाओल सभ वानर दल,
भेला एकठ्ठा लाखक लाखं
बना बना सभ गेला चहूदिश,
सुग्रीवक सभ रखलनि धाखं
जामवंत हनुमत दक्षिण दिश,
अंगदादिकें लए निज संग।
मास दिवसमे घुरि आबक छनि,
पूर्ण करक छनि खोज प्रसंग।
तकिते अएला घोर विपिनमे,
लगलनि सभकें तीव्र पियास।
देखि कतहु नहि जलक भरोसा,
सबहक मन भए गेलनि उदास।
</poem>
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