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02:47, 15 नवम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अनिरुद्ध उमट
|संग्रह=
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<poem>
दीवार कोई फ्रेम है
जिसमें रंग छोड़ चुकी तस्वीर वाले आदमी की
पीठ का निशान
नहीं मगर गिर कर टूटे
आईने की किसी किरच की स्मृति
हम जो देखते हैं
हमारी पीठ को जो देखते हैं
वहाँ का फ्रेम टूटा उतना नहीं
जितना धुँधला गया है
हम दीवारों पर अँगुलियाँ फिराते
हमारी पीठ पर कैसी सिहरन होती
और जो दीवार के उस पार खड़ा है
क्या ठीक-ठीक वही है
जो कभी था तस्वीर में
उसकी पीठ पीछे फिर कोई दीवार
जहाँ किसी की पीठ का निशान
पूरा घर कोई अन्तहीन आइनों का सिलसिला
जिस पर आती जाती ठिठकती हवाएँ
शहर में नहीं अब कोई दुकान
दुकान फ्रेम हो
बिखर गयी
</poem>
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