|रचनाकार=रंजना जायसवाल
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|संग्रह=जब मैं स्त्री हूँ / रंजना जायसवाल
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ब्याह के आईं तो आयी तब लाल गुलाब थींजल्द ही पीला कनेर हो गयीं गयी चाचीघर भर को पसंद पसन्द था
उनके हाथ का सुस्वाद भोजन
कड़ाई–बुनाई–सिलाईकढ़ाई-बुनाई-सिलाईसलीका–तरीकासलीका-तरीकाबोली–बानीबोली-बानीबात–व्यवहारबात-व्यवहार नापसंद नापसन्द कि दहेज कम लाई लायी थी चाचीचाची।जाड़े की रात रातों में ठंडे ठण्डे पानी से नहातीं
झीनी साड़ी पहनतीं
गूंज गूँज रहे होते जब कमरे में
चाचा के खर्राटे
बेचैनी से बरामदे में टहलतीं
जाने किस आग में जलतीं जलती थीं चाचीचाची।चाचा जब गए गये विदेश
एक हरा आदमी उनसे मिलने आया
"बचपन का साथी है" _कहकर -कहकर जब वे मुस्कुराईंमुस्कुरायींमुझे बिहारी की नायिका नजर आईं आयीं चाची
उस दिन से चाची हरी होती गयीं
दोनों सुग्गा-सुग्गी बन गएगयेपर जिस दिन लौटे चाचानीली नजर आईं नज़र आयीं चाचीसोचती सोची हूँ _काशकाश, मैं दे सकती पंखखोल सकती खिड़की-दरवाजेउड़ा सकती सुग्गी को सुग्गे के पासपास।
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