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02:53, 8 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आदित्य शुक्ल
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|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}
<poem>छत, छाता, जादू
कुछ भी नहीं बचा है जादूगर के पास अब।
सुबह होते
धूप निकलते
चार दीवारों पर ढ़क्कन सी रखी छत
सरक कर
दीवारों के ढ़ांचे को बना देती है खंडहर
दिन भर के लिए।
जादूगर अब भी कभी कभी
घुमाता है जादू की छड़ी
'आबरा का डाबरा'
बोलता है और रूमाल से
उड़ती निकल आती हैं तितलियां।
तितलियां
काली/लाल तितलियां
जर्जर छातों पर बैठ
घूरती हैं
दीवार/आसमान/सड़क
मगर छत
जस की तस।
खुली रहती है दिन भर
दीवारों के बीच का ढ़ांचा बना रहता है खंडहर!
</poem>