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खोल दो अब नाव / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>बहुत दिन बाँधी तटों पर
खोल दो अब नाव

नई यात्रा के लिए
तत्पर हवाएँ
कह रहीं हैं -पाल तानो
सागरों के पार
जो फैले क्षितिज हैं
उन्हें जानो

खोज लो कल्पित सुरों के
गुनगुनाते ठाँव

इन किनारों पर
थकी चट्टान
बूढ़ी कन्दराएँ हैं
नये द्वीपों पर
सुखी उत्सव सलोने
और कोंपल याचनाएँ हैं

हैं वहीँ पर धूप के
नीले रसीले गाँव

बंधु, रोको नहीं
जाने दो हमें
अंतिम लहर के पार
देखने दो
सूर्य की यात्राएँ हैं किस ओर
कितनी बार

अब न टिकने पायेंगे
ये थरथराते पाँव
</poem>
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