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09:45, 13 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>आग लगी भोली गौरैया के नीड़-तले
धुआँ घिरे
चन्दन के राजमहल काँप रहे
थके पाँव
धुंध की सुरंगों को नाप रहे
गहरे हैं सूरज के चेहरे के दाग जले
तिनकों के
आपस के रिश्ते सब बिखर गये
झुलस गये
सपनों की बस्ती के शिखर नये
मिले घने जंगल में कटे पंख - रुँधे गले
घेर लिये आँगन-चौराहे सब
भीलों ने
नोच लिये बरगद के पत्ते कब
चीलों ने
कौन कहे - चुप हैं अँधियारे घर धूप-ढले
</poem>
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