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जलसेघर की शाम / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>चढ़े मुखौटे
बजा पियानो
थिरक उठी फिर जलसेघर की शाम

कुछ पल चहके
कुछ पल डूबे
घने अँधेरे
जिए देर कुछ
टूटे हुए नशे के घेरे

लौट आये फिर
दर्द अकेले
थके हाथ में पकड़े खाली ज़ाम

बात-बात पर
हठी कहकहे रहे अधूरे
दिन के पछतावे
सूनेपन हुए न पूरे

खानापूरी
खुली खिड़कियाँ
खड़ी रह गयीं सन्नाटों के नाम
</poem>
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