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तीन पात के ढाक / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>गुइयाँ !
अपनी अमराई में फले निपूते आक
बरगद को मुँह चिढ़ा रहे हैं
तीन पात के ढाक

चन्दनबाड़ी अपनी टूटी
गौरैया हैरान
नये नीड़ की नीवें गहरी
खुदे हुए मैदान

उखड़े पीपल
सूनी आँखों धूप रहे हैं ताक

बेघर छप्पर
उजड़ी तुलसी
देवठान बेहाल
पाँव-तले की मिट्टी खिसकी
उखड़ी-उखड़ी चाल

चिकनी सड़कें
ऊँचे गुंबज - नीची सबकी नाक
</poem>
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