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सतिया के छापे पर / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>मेंहदी के रंग थके
उलट गया धान का कटोरा

एक बूँद पानी की
बिला गयी रेती में
सारी औकात चुकी
मुरझाई खेती में

शहर जा मजूर हुआ
मँहगू का छोरा

दिया-बुझे ताखे पर
पूनो न तीज रही
चुप तुलसीचौरे पर
भोर खड़ी छीज रही

जाने कब बीत गया
फागुन दिन कोरा

सूखे की छाँव पड़ी
सतिया के छापे पर
कौन तरस खाये फिर
जूझते बुढ़ापे पर

लटका ओसारे में
है खाली बोरा
</poem>
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