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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>
और
सडकों से निकलकर
बढ़ गये हैं पाँव घर की ओर

पीठ पर लादे
कई सूरज पुराने
चढ़े छत पर
धूप का बिस्तर बिछाने

किन्तु
पिछली गली से
उठने लगा है एक अंधा शोर

आग के फैलाव
टूटी सीढियाँ हैं
बंद कमरों में
अपाहिज पीढ़ियाँ हैं

किस तरह
बाँधें हवा को
थक गया है बाजुओं का ज़ोर
</poem>
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