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06:37, 17 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
उत्तर दए मन करू शांत।
चलल रही लंका सऽ जहिदिन,
छलहुँ देखाबैत मरण स्थान।
जहाँ जहाँ जे राक्षस हनलहुँ,
चढ़ल रही सभ पुष्पक यान।
आनक बेरि अहाँ नहि हँसलहुँ,
हँसलहुँ दसकंधर सुनि नाम।
जिज्ञासा मनमे घर कयलक,
कारण सुनि मन लए विश्राम।
कारण एकर सुनू कोशलपति।
हरण जखन कयलक ओ दुष्ट,
हमहूँ ओकर शक्ति हरिलेलहुँ।
बल बिहीन छल तनसँ पुष्ट।
आत्म शक्तिसँ हीन दसानन,
मात्र रहल छल काठक मूर्ति।
हनि ओकरा कयने छी केवल,
विधिक विधानक नियमक पूर्ति।
काठक मूर्ति मारि कए कयलहुँ,
अपन भुजाबल केर बड़ाइ।
हँसि पड़लहुँ हम तही बात पर,
आन ने किछु छल हमर ढ़िठाइ।
ई की बजलहुँ रावण केर बल,
तीन लोकमे छल बलबंत।
सुरनर मुनि सभ छला प्रकंपित,
छल फहरैत ध्वजा सर्वत्र।
युद्ध कयल ओ ततेक भयंकर,
जकर ने होमय सहज बखान।
तकरा हनव छोट अहँ बुझलहुँ,
राम कहल अछि ई अपमान।
सिया कहल जौं बल देखक हो,
देखू जाए सहस्त्रा बाहु।
अछि ओ दैत्य अमित बल रखने,
कहबै अछि धरती केर राहु।
बहुत दिवस रखलक रावणकें,
अपन अश्व शाला मे बान्हि।
अश्व रखकक पाबय बनाबए,
करबए भोजन सभदिन रान्हि।
कहल राम हम जायब निश्चय,
देखब ओकर केहन अछि चाप।
ओकरो यमकेर द्वार पठायब,
जलदी इहो मेटाएव पाप।
गेला सहस्त्राबाहुक क्षय हित,
राम, लखन हनुमंतक संग।
घंट विशाल बजैछल जैखन,
ओकर होइत छल निद्रा भंग।
हनुमत जोर लगाकऽ थकला,
बजाने सकला घंट विशाल।
लखन सेहा पुनि जोर लगौलनि,
हिनको भेलनि पहिलुके हाल।
तखन राम पुनि अपने अएला,
बजालेलनि कयलनि श्रम जोर,
सुनिते उठल महादानव ओ,
छोड़ल स्वास बहुत घनघोर।
ओकर स्वास छल की वरणन हो,
अति वेगक गति नेने संग।
भेल राम लक्ष्मण हनुमंतक,
सकल कामना बाटहि भंग।
हवा उड़ौने आयल सभकें,
पहुँचौलक सभकें निजधाम।
सिया देखि हँसली पुनि पुछलनि,
कहू केहन छल ई संग्राम?
राम कहल सत्त अहँ कहलहुँ,
अति बलिष्ठ अछि बिनु संदेह।
ओकर नाक केर स्वास घुरौलक,
चलि अएलहुँ सभ अपना गेह।
सीता कहल सुनू कोशलपति,
मन नहि राखू कनयों खेद।
हम जाइत छी स्वयं छोड़ाबए,
ओकर देहकेर सभटा स्वेद।
तखनहि सिया गेली राक्षसघर,
धयने काली माताक रूपं
लक्ष बाहुछल शस्त्र सुसज्जित,
अतुल शक्ति लए काँति अनूप।
घंटा बजा बजौलनि दानव,
भेल युद्ध अतिसँ घन घोर।
अंत सहस्त्रो भुजा कतरलनि,
काटि खसौलनि पोरे पोर।
मारि सहस्त्रबाहुक अएली,
सिया अयोध्यामे निवास।
सुना कथा सभ रघुनन्दनकें,
कयलनि दुहू हास परिहास।
एहि विधि माया ब्रह्म मिलि, कयल दनुज संहार।
सुजन सभक भयकें हरल, सुखी भेल संसार।
लगला करय राज्य श्रीराम,
यश सुरभित छल आठोयाम।
सुख समृद्धि छल चारूकात,
कतहुने दुख केर छल आघात।
दम्पति रजकमे झगड़ा भेल,
रजकी छलि नैहर चलिगेल।
आबएमे कयने छलि देरि,
झगड़ल रजक नयन फेरि।
कहल ने छी हम जगपति राम,
देब तोरा निज घर विश्राम।
रावण घर सिय कयल निवास,
दिवस पक्षनहि, मासक मास।
तदपि राम रखलनि निज गेह,
जोड़ल हुनि संग पहिलुक नेह।
गुप्तचरक छल ई सम्वाद,
कयल राम सुनि बहुत विषाद।
लखन बजा आदेशल राम,
गगन करू वन तजि विश्राम।
जएती सिया अहाँ केर संग,
बनती वनवासी के अंग।
सुनितहि लखनक दृग छल नोर,
मन क्रंदन कए उठलनि जोर।
किन्तु अवज्ञा छलनि अधर्म,
पालन आज्ञा छल शुभकर्म।
रथ लए सियजिक गेला निवासे,
वन गमनक किछु देलनि अभास,
कहलनि प्रभुकेर अछि आदेश,
देखथु सिय विपिनक परिवेश।
छली दुजीवा जलक दुलारि,
चललि तदिप आज्ञा सिर धारिं
अग्र बैसला लखन कुमार,
छली सिया बैसल पछुआर।
</poem>