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|रचनाकार=उज्ज्वल भट्टाचार्य
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<poem>कहीं कोई कमी रह गई थी
सादी आंखों से पकड़ में भी नहीं आने वाली
लेकिन वो
एक्सपोर्ट के काबिल नहीं रह गया
साहबों के चमचमाते शोकेस के बदले
उसे जगह मिली फ़ुटपाथ पर
अचानक वो
लगभग हर किसी की पहुंच के अंदर आ गया
बेचने वाले शातिर थे
ख़रीदने वाले भी शातिर
दोनों एक-दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे थे
वो उनके धंधे का हिस्सा बन गया
दोनों को पता था
वो रिजेक्टेड है
लेकिन है बेशक काम का

बेशक वो काम का है
और रहेगा
अगर पतलून नहीं
तो फिर झोला बनकर
</poem>
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