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पायताने बैठ कर २ / शैलजा पाठक

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<poem>मझली चाची के हलदियाईन हाथ
टह लाल आंखें
चूल्हे पर खदकते अदहन से सवाल
ना कभी कोई सुना ना सुन पायेगा
तीज पर कसी चूडिय़ां
छनछनाती नहीं
कलाई पर गोल चिपकी सी होती हैं
जैसे कलेजे को ƒोरे रहता है दर्द
ठीक होली की शाम चुडि़हारिन
उतार लेगी पुरानी चूडिय़ां
पहना जायेगी नई
चाची झोंक दी जायेगी आग में लकड़ी की तरह
रात मन के सूने आंगन में
जलेगी होली
अतीत का हुड़दंग
मंजीरे पर फाग गाते लोग
पिसती भांग का नशा
सामने वाली खिड़की पर
एकटक निहारती एक जोड़ी आंख
भीगकर भी ना भीग पाई उसके रंग से
रात वीराने चाचा का संदेसा
आज हम बड़का टोला में रुकेंगे
फागुनहटा चले तो गांव ƒार बड़ा याद आवे है
अम्मा कहती रही
धरती लाल रंग गई आज
चाची कोरी की कोरी
बड़का टोला से देर रात तक
आती रही नाच-गाने की आवाज
मोरे नैना कटीले दरोगा जी
सब दुश्मन निगोड़े दरोगा जी।</poem>
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