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कमाल की औरतें ३ / शैलजा पाठक

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<poem>ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियां
कभी झटक देती हैं धूप की ओर
अपने बिखरे को बुहार देती हैं

ये बार-बार मलती हैं आंखें
जब सहती हैं आग की दाह
ये चिमटे के बीच पकड़ सकती हैं
धरती की गोलाई
धरती कांपती है थर-थर

ये फूल तोड़ती हुई मायूस होती हैं
पूजा करती हुई दिखाती हैं तेज़ी
बड़बड़ाती हैं दुर्गा चालीसा
ठीक उसी समय ये सीधी करती हैं सलवटें
पति की झ€क सफेद कमीज़ की

इनकी पूजा के साथ
निपटाए गये होते हैं खूब सारे काम
ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं
बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी
तो बड़ी हसरत से छू लेती हैं उसमें
बने मोर के पंखों को
ये छोटे बेटे के पीछे पंख-सी भागती हैं
कि छूटती है बस स्कूल की
'तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा'
इनके हाथों में लगा नमक
इनकी आंखों में पड़ जाता है

ये बार-बार ठीक करती हैं
घड़ी का अलार्म
ये आधी चादर ओढ़ कर सोई औरतें
पूरी रात बेचैन कसमसाती हैं सांस रोके
इनकी हथेलियों में पिसती है एक सुबह
आंखों में लडख़ड़ाती है एक रात

ये उठती हैं तो दीवार से टिक जाती हैं
संभलती हैं, चलती हैं, पहुंचती हैं गैस तक
खटाक की आवाज़ के साथ
जल जाती हैं

और तुम कहते हो-
कमाल की औरतें हैं...
चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं!
</poem>
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