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कमाल की औरतें १३ / शैलजा पाठक

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<poem>उसने नहीं देखीं मेरी कलाइयों की चूडिय़ां
माथे की बिंदी, मांग का सिंदूर
उसने गोरे जि़स्म पर काली करतूतें लिखीं
उसने अंधेरे को और काला किया
कांटों के बिस्तर पर
तितली के सारे रंग को क्षत विक्षत हो गये

तुमने आज ही अपनी तिजोरी में
नोटों की तमाम गड्डियां जोड़ी हैं
खनकती है लक्ष्मी
मेरी चूडिय़ों की तरह

चूडिय़ों के टूटने से ज़ख्मी होती है कलाई
धुल चूका है आंख का काजल
अंधेरे बिस्तर पर रोज़ बदल जाती हैं परछाईयां
एक दर्द निष्प्रा‡ण करता है मुझे

तुम्हारी ऊंची दीवारों पर
मेरी कराहती सिसकियां रेंगती हैं
पर एक ऊंचाई तक पहुंच कर
फ्रेम हो जाती है मेरी तस्वीर
जिसमे मैंने नवलखा पहना है

खूंटे से बंधे बछड़े सी टूट जाऊंगी एक दिन
बाबा की गाय रंभाती है तो दूर बगीचे में
गुम हुई बछिया भाग आती है उसके पास
मैं भी भागूंगी गांव की उस पगडंडी पर
जहां मेरी दो चोटियों में बंधा मेरे लाल फीते का फूल
ऊपर को मुँह उठाये सूरज से नजरें मिलाता है।
मैं</poem>
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